आध्यात्मिक ग्रन्थो में उपनिषद का स्थान सर्वोपरि रहा है। वैदिक शिक्षा का विस्तृत वर्णन उपनिषदो में किया गया है। योग विद्या का बहुत अधिक वर्णन उपनिषदो मे ं मिलता है। उपनिषदो में योग की अन ेक परिभाषाए दी गयी है। कठोपनिषद में योग की परिभाषा निम्न है -
‘‘यदा पंचावतिष्ठनते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमा ं गतिम्।।’’ 3/10 कठो0
अर्थात ् योगाभ्यास करते - करते पाॅचो इन्द्रियाॅ व मन स्थिर हो जाए और बुद्धि भी परमात्मा क े स्वरूप में स्थिर हो जाए, उस स्थिति में उसको परमात्मा क े अतिरिक्त किसी
अन्य वस्त ु का ज्ञान या चेष्टा नही रहती है। उस स्थिति को योगीगण परमगति, योग की सर्वोच्च अवस्था बतलाते है।
‘‘तां या ेगमिति मन्यन्त े स्थिरामिन्दि ्रयधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगा े हि प्रभावाप्ययौ।’’ 3/11 कठो0
अर्थात ् ‘‘मन , बुद्धि, इन्दि ्रय की स्थिर धारणा का नाम ही योग है। इस योग को प्राप्त साधक विषयो व प्रमाद से सर्वदा रहित हो जाता है।े परमातमा को प्राप्त करने की
इच्छा रखन े वाले साधक क े लिए कठोपनिषद में कहा गया है - कि साधक निरन्तर योग युक्त रहने का द ृढ ़ अभ्यास करते रहना चाहिए।
‘‘न ैव वाचा न मनसा प्राप्तु ं शक्या े न चक्षुषा।
अस्तीति ब्र ुवतोऽन्यत्र कथं तद ुपलभ्यते।।’’ 3/12 कठो0
अर्थात ् वह परमात्मा कर्मन्दि ्रयो से ज्ञान ेन्दि ्रयो से तथा मन, बुद्धि, अहंकार से भी प्राप्त नही किया जा सकता है। क्योकि वह इन सभी की पहुॅच से पर े है। तथा वह
योगाभ्यास द्वारा मन व इन्दि ्रयो को नियन्त्रित कर साधक को अवश्य मिलता है। अतः ईश्वर प्राप्ति के लिए द ृढतम निश्चय के साथ प्रयत्नशील रहना चाहिए। योग शिखोपनिषद क े अन ुसार -
‘‘योऽपान प्राणर्योऐक्यं स्थरजो रेतसोस्तथा।
सूर्य चन्द ्रसोर्योगाद् जीवात्मा परमात्मनो।।
एवं तु द्वन्द्व जालस्य संयोगो योग उच्यत े।।’’
अर्थात ् प्राण और अपान की एकता सतरज रूपी कुण्डलिनी की शक्ति और स्वरेत रूपी आत्म तत्व का मिलन, सूर्य स्वर व चन्द्र स्वर का मिलन, एवं जीवात्मा व परमात्मा का मिलन ही योग है। श्व ेताश्वतर उपनिषद में योगाभ्यास क े लिए उपयुक्त स्थान का वर्णन करते हुए कहा गया है -
‘‘समे शुचै शर्करा वहिृन बालुका
विवर्जिते शब्द जलाश्रयादिभिः।
मनोऽन ुक ुले न क चक्षुपीड़ने
गुहृय निवाता श्रयणे प्रयोजयेत्।।’’ 12/10
अर्थात ् योगाभ्यास क े लिए समतलसुचि समतल क ंकर पत्थर रहित आग व बालू से रहित तथा शब्द जलादि का व्यवधान न हो। जहाॅ आ ॅखो को पीड़ा द ेने वाली वस्त ु ना हो, प्रिय लगने वाला स्थान हो। ऐसा स्थान ही योगाभ्यास क े लिए उपयुक्त स्थान होता है, तथा ऐसे स्थान पर योग सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। योग शिखोपनिषद में योग क े प्रकारो की चर्चा इस प्रकार से है -
‘‘मन्त्रो लया े हठो राजयोगान्ता भूमिकाः क्रमात ्।
एक एव चतुर्धाऽयं महायोगाऽभिघीयत े।।’’
अर्थात ् मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग और राजयोग ये चारो योग की चार पद्धतियाॅ है। चारो मिलकर चत ुर्विध योग कहलाते है, जिसे महायोग कहते है।
उपनिषदों में मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान का होना आवश्यक हैं। ज्ञान के साथ - साथ योग का ज्ञान होना आवश्यक है। योग तत्वोपनिषद मे ं कहा गया है -
‘‘योग हीन ं कथंज्ञानं मोक्षदं भवति ध्र ुवम्।
योगोऽपि ज्ञान हीनस्तु न क्षमों मोक्षकर्मणि।।’’
अर्थात योग के बिना ज्ञान ध्रुव मोक्ष द ेने वाला नही हो सकता है, तथा ज्ञानहीन योग भी मोक्ष कर्म में असमर्थ है। अतः मोक्ष की प्राप्ति क े लिए योग का ज्ञान आवश्यक हैं।
अमृतनादो उपनिषद में योग के अंगो का वर्णन करत े हुए कहा गया है -
‘‘प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामौऽय धारणा।
तर्कश्चैव समाधिश्च षड ंगोयोग उच्यते।।’’
अर्थात ् प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, प्राणायाम, तर्क और समाधि यह षडंग योग कहलाता है। श्वेताश्वतर उपनिषद में योग के फल का वर्णन इस प्रकार किया गया है -
‘‘लघुत्वमारोग्यं मलोलुपत्वं वर्ण प्रसादं स्वर सौष्ठवं च।
गन्धाः शुभा े मूत्रपुरीषमल्यं योग प्रवृत्रिं प्रथमा वदन्ति।।’’ 2/13
अर्थात ् योग क े सिद्ध हो जाने पर शरीर हल्का हो जाता है, शरीर निरोग हो जाता है। मनुष्य को किसी भी विषयो क े प्रति राग नही रहता है। योगी का शरीर आकर्षक हो
जाता है। स्वर मधुर, शरीर की दिव्य गन्ध व शरीर में मल मूत्र की कमी हो जाती है।
श्वेताश्वतर उपनिषद में योग के फल का वर्णन करते हुए कहा गया है -
‘‘न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु ।
प्राप्तस्य योगाग्नमयं शरीरम्।।’’ 2/12
मैत्रायण्युपनिषद में कहा गया है -
‘‘एकत्वं प्राणनसोरिन्दि ्रयाणां तथैव च।
सर्वभाव परित्यागो योग इत्यभिधीयत े।।’’ 6/25
अर्थात ् मन, प्राण व इन्दि ्रयों का एक हो जाना, एकाग्र अवस्था को प्राप्त कर लेना,
बाहय विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में, मन का आत्मा में लग जाना , प्राण का निश्चल हो जाना ही योग है।
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