वेदों में योग विद्या ( Yoga in Vedas)

वेदो में ईश्वरीय क ृपा द्वारा ऋतम्भरा प्रज्ञा का वर्णन किया है - 
‘स द्या नो योग आभुवत् स राये स पुर धयाम्।
गमद ् वाजगिरा स नः।।’’ - ऋ0 1/5/3, साम0 1/2/311
अर्थात ् ईश्वर की क ृपा से हमें योग (समाधि) सिद्ध होकर विवेक ख्याति तथा ऋतम्भरा - प्रज्ञा प्राप्त हो, और वही ईश्वर हमे अपनी सिद्धियो (अणिमा - महिमा) सहित प्राप्त हो। वेद में इसी कारण प्रार्थना की गयी है - 
योग े - योग े तवस्त ंर वाजे - वाजे हवामह े। 
सखाय इन्द ्र मूतये।’ 
- ऋ0 1/30/7/11, शुक्ल यज ु0 1/14
अर्थात ् साधक योग प्राप्ति क े लिए तथा विघ्नो में परम् ऐश्वर्यवान इन्द्र का आह्वान 
करते है। योग साधना में उत्पन्न विघ्नो को द ूर करने की सामथ्र्य ईश्वर में है। अतः ईश्वर 
की महत्ता का वर्णन किया गया है। वेदो का मुख्य विषय आध्यात्मिक उन्नति करना है। 
इसके लिए यज्ञ, उपासना व कर्मकाण्ड का वर्णन किया गया है, तथा योग साधना पर विशेष बल दिया गया है। इस सन्दर्भ में ऋग्वेद में वर्णन इस प्रकार है 
‘यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विश्चितश्चन। 
 स धीना ं योगमिनवति।।’’ ऋग्वेद1/18/7
 अर्थात ् विद्वानो का कोई भी कर्म योग के बिना पूर्ण नही होता है। इस मन्त्र में से वेदो म ें योग की महत्ता वर्णित होती है। वेदो में हठयोग का वर्णन भी मिलता है, तथा उसक े अंगो का वर्णन भी प्राप्त होता है -
‘‘अष्ठचक्र नवद्वारा देवानां पूरयोधया।
तस्यां हिरण्यमयः कोशः स्वर्गा े ज्योतिषावृतः।।‘‘ अथर्ववेद 10/1/31
अर्थात ् मनुष्य शरीर आठ चक्र व नव द्वारो से युक्त एक देवनगरी है। यह 
अपराजेय द ेव नगरी, इसमे हिरण्यमय कोश है, जो एक दिव्य ज्योति और आनन्द से परिपूर्ण हैं।
वेदो में आत्मा परमात्मा क े साथ एक्य का वर्णन है। उसके लिए साधक की अभिलाषा निम्न मन्त्र में स्पष्ट होती है -
‘‘यदग्न े स्यमहं त्वं वा धा स्या अहम्। 
स्युष्ट े सत्या दूहाशिषः।।’’ ऋग्वेद 8/44/23
अर्थात ् हे अग्नि देव ! अर्थात ् मैं सर्व समृद्धि सम्पन्न हो जाऊॅ, त ेरे आर्शीवाद से ही मेर े सभी कार्य सत्य सिद्ध हो जाए व तेरा - मेरा एक हो जाये। अर्थात मैं - तू और तू-म ैं 
हो जाए। संक्षेप में यदि कहा जाए तो वेदो मे योग का वर्णन अन ेक स्थानो पर मिलता है, तथा चित्त को एकाग्र करने की विद्या (योग) मन्त्र द ृष्टा ऋषियो को ज्ञात थी जिसके द्वारा उन्होन े ईश्वर का साक्षात्कार किया।

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